कहतें है की फिल्म भी समाज का आईना होती है। न जाने कितनी ऐसी फिल्म होगी जिसने समाज की चमड़ी को उधेड़ कर रख दिया हो? फिल्मे भी दो तरह की होती होगी। नहीं... नहीं….शायद इतने मुखौटे पहनकर समाज के सामने आती होगी जहां मुखौटा है या नहीं, झूठ को सच के आकार में तराशा गया है या नहीं या फिर सच खुद अपने झूठ के कपडे उतारकर, खुद नंगा होकर हमारे सामने कब खडा हो गया ये पता ही नहीं चलता। शायद बहुत ही कम एसी फिल्मे होगी जो इस बात को मुनासिब ठहराती होगी!
आज की ऐसी ही फिल्मों में से एक फिल्म है 'द वाइट टाइगर' सालों पहले जब 'स्लमडॉग मिलेनियर' आई थी तब उसने कितने विवेचकों का ध्यान खींचा था। आपने देखी होगी, नहीं देखी है तो ये जानना बहुत जरूरी है की उस वक़्त फिल्म 'स्लमडॉग मिलेनियर' और मेन बुकर पुरस्कार विजेता अडिगा की नवलकथा 'द वाईट टाईगर' ने मानो हल्ला बोल दिया था। तब ऐसा लगा रहा था जैसे कुछ कमी रह रही हैं। ये कमी पुरी हुई 2021 की, रामिन बहरानी की फिल्म 'द वाईट टाइगर' के साथ! अब दोनों पल्ले बराबर हो गए हैं, फिल्म को समझने के लिए, इस नए इंडिया को देखने के लिए या सिर्फ़ सोने की चिड़िया माने जाने वाले इंडिया का अपचनीय सत्य जानने के लिए ही नहीं मगर ये भी देखने के लिए की बदलते हुए वक़्त के साथ भी यहां पर आम इंसान के साथ कुछ भी नहीं बदलता। बदलते हैं तो सिर्फ चेहरे और उनके पीछे छिपी हुई गुनहगारों की अपनी-अपनी एक जैसी होते हुए भी अलग सी कहानिया। खैर छोड़िए, गर इन बातों के सिलसिले में फिसल गए तो ये दलदल हमे उस दलदल से रुबरु नहीं होने देगा जो हमें रामिन बहरानी ने देखने का मौका दिया है।
मगर सवालों की बौछार यही पर खत्म नहीं होगी। क्या बहरानी ने सच में उस दलदल को दिखाया है या फिर उसने दो चार कमल ओर खिला दिए हैं।
सवाल ये भी हैं क्या ये सब उसने अपनी मर्जी से किया है? किया है भी या नहीं?
माफ़ करना, इस बात की तसल्ली आप को खुद करनी होगी, क्योंकि मेरा जमीर मुझे इस बात की इजाजत नहीं देता।
इससे पहले की बातें कुछ और बता दे जो आपको खुद जानना हैं , चलो वो जान लेते हैं जो हम दोनों देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं। क्या कभी आपने अपने पिता को, अपने ही अंतिम संस्कार के वक्त जीने की ख्वाईश करते हुए देखा है? खुद ही की पढ़ाई इस तरह छूटते हुए देखा है जहा पुरे स्कुल में किसी शिक्षक ने सिर्फ़ आप ही मे देश का भविष्य देखा हो - वो भी 'द वाईट टाईगर' कहकर!गर नहीं तो आप बलराम नहीं मगर फिर भी अगर आप बहरानी के दीखाए गये इंडिया से जुदा हो पाये तो छोटे मूंह बड़ी बात- यह इंडिया का चित्र सच नहीं है यह मानने की अनुमति खुल्लेआम दी जा सकती है। पर अफ़सोस मत करना इसकी नोबत कभी नहीं आएगी।
शब्दों को फिल्म में चलते चित्र की आवाज देना उतना ही मुश्किल होता होगा जितना बलराम के लिए एक सफल आदमी होना। फिल्म के नजारों ने, न जाने कितने फासले पास रहकर बता दिए। शुरुआती दृश्य में मस्जिद नीचे चलते हुए असंख्य लोगों को दिखाकर किसकी महत्ता दिखाई गई है? उतना ही नहीं, पर जहाँ-जहाँ मालिक को दीखाया गया है वहा खुद ही रोशनी दिखाई पड़ेगी और क्या अब यह कहना जरुरी होगा की गुलामों के साथ अन्धेरा…बहुत खूब ही एक फासला दिखाया गया है मालिक नौकर के साथ हो या नौकर मालिक के साथ! यह फासला बहरानी ने इस तरह जोड़ा है जहा फासले को फासला ना समजते हुए भी इसे अनदेखा नहीं कर पाओगे। शायद अच्छी फिल्मो में कैमेरा की यही भुमिका होती होगी।
नौकर अपने मालिक से तो आँख मिला सकता है या नहीं पता नहीं, मगर मालिक के, बाथरूम के आयने तक में खुद ही की आंखें मिलाकर देखने की जुरर्त ना करे- और यह इतना सामान्य कर दिया गया हो की प्रेक्षक वो ना देख पाए जो उन्हें सच में देखना हो।
कितनी रोचक बात होगी ना!
जहा एक इन्सान ड्राइवर बनने के लिए अपने परिवार से भीड़ जाए जहा भीड़ना नामुमकिन हो।
परिवार की फिकर इन्सान को इन्सान तो बना देती हैं मगर जीने के ख्वाब छिन लेती हैं!
फिल्म में बहुत से ऐसे सीन ही बलराम के खुद से मिलते हुए, खुद को आईने में रुबरु करते हुए इस तरह दीखाया गया हैं जो आप शायद ही देख पाएंगे। बलराम को जैसे कुछ समज नहीं। वो तो यह भी नहीं जानता की अपने दांतों को साफ कैसे करे पर क्या समाज के इस वर्ग को कहे जाने वाले मालिक वर्गों ने ही वंचित नहीं रक्खा? मालिक अच्छा हो या बुरा मालिक आखिर मालिक होता है! और जैसे अडिगा कहतें है ना ' हनुमान बनने की चाहत इस तरह भर दी जाती हैं की नौकर राम बनने की ख्वाईश तक भी ना पहुंच पाए।
क्या यह कहने की जरूरत होगी की मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के राज्य में सीता ल हमेशा वनवास में रहना होगा, यज्ञ में सिर्फ़ मुर्ति बन के बैठना होगा और अग्निपरीक्षाए देते रहना पड़े! पर दील मत दहौलाओ, इस फेमिनिज्म-पोस्ट फेमिनिज्म युग में भी प्रियंका चोपड़ा ने या तो फीर यह कहे की रामिन बहरानी ने इसे नहीं दीखाया हैं। क्या करें प्रोड्यूसर जो हैं! जो लाईन्स कही ओर है कोई और कहकर गया है वो पिंकी मैडम जो शायद आज के इंडिया में भी पिंकी मैडम इस तरह नहीं कह पाती खैर, वों लाईन्स आपको भी सुननी चाहिए-पढ़ना चाहिए पर वह भी बिना फिल्म देखे आपको सुनाने की इजाजत मुजे मेरा जमीर नहीं देगा।
सोचिए, यह भी सोचिएगा की इस पर सोच पाना कितना आसान है, पर सोचते-सोचते गलती से भी बलराम मत बन जाना अगर आप वाकई में बलराम नही है तो! वरना सच और झूठ कल भी सापेक्ष थे आज भी सापेक्ष हैं और आप भी जानते है आने वाला हर 'कल' आज ही बनकर आएगा।
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